परिवहन आर्थिक विकास, सामाजिक प्रगति और ग्रामीण जीवन की गुणवत्ता का महत्वपूर्ण संघटक है। इसकी अपर्याप्तता जनसमुदाय को मूलभूत और आर्थिक आवश्यकताओं तक पहुंच से वंचित रख सकती है और उसे परिवहन के मामले में सुविधाहीन बना सकती है। सड़क निर्माण में स्थानीय स्तर पर उपलब्ध सामग्री को इस्तेमाल करने को प्रोत्साहन देते हुए और सड़क परिसंपत्ति प्रबंधन व्यवस्था विकसित करके इन मामलों को तत्काल हल किए जाने की जरूरत है। इसके अलावा देश में न्यूनतम लागत के साथ सभी बस्तियों को संपर्क मुहैया कराने के लिए सर्वोत्तम सड़क नेटवर्क नियोजन तकनीक को विकसित किए जाने की जरूरत है.
भारत 6 लाख गांवों वाला एक विशाल देश है। देश का भूगोल और जलवायु एक क्षेत्र से लेकर दूसरे क्षेत्र तक अलग-अलग है। भारत की पाकिस्तान, चीन, नेपाल, भूटान, बांग्लादेश और म्यांमार से सटी लंबी सीमा भी है। इसके पूर्व, पूर्वोत्तर, पश्चिम और दक्षिण-पश्चिम क्षेत्र में पर्वतीय इलाके हैं। यहां विशाल रेगिस्तानी क्षेत्र भी है-विशेषकर, राजस्थान और गुजरात में तथा विशाल तटीय क्षेत्र है। कुछ इलाकों में बहुत ज्यादा बारिश होती है, कुछ इलाकों में बारिश कम होती है। क्षेत्र और जलवायु में इतने बड़े पैमाने पर विविधताएं भारत में सड़क निर्माण के कार्य को चुनौतीपूर्ण बना देती है।
भारत में सड़क विकास योजनाएं
भारत में देश के विकास के लिए उचित सड़क नेटवर्क की आवश्यकता को बहुत पहले ही समझ लिया गया था। नागपुर योजना (1943-61) के नाम से विख्यात, पहली सड़क विकास योजना में पहली बार देश में सड़कों की जरूरत को दीर्घकालिक आधार पर देखा गया और पहली बार ही सड़क प्रणाली को कार्यात्मक अनुक्रम में वर्गीकृत किया गया, जिनमें राष्ट्रीय राजमार्ग (एनएच), राज्य राजमार्ग (एसएच), प्रमुख जिला सड़कें (एमडीआर), अन्य जिला सड़कें (ओडीआर) और ग्राम सड़कें (वीआर) शामिल थीं। सड़कों की अंतिम दो श्रेणियां देश की ग्रामीण सड़क व्यवस्था को आकार देती हैं। बाद के 20 वर्षों में सड़क विकास योजनाओं में सभी श्रेणियों की सड़कों का निर्माण करके देश में सड़कों का घनत्व बढ़ाए जाने पर पर्याप्त जोर दिया गया। भारत का कुल सड़क नेटवर्क लगभग 46 लाख किलोमीटर है, जिसमें ग्रामीण सड़कें 26 लाख किलोमीटर हैं। नवीनतम सड़क विकास योजना विशन 2021 में जिला स्तर पर 100 से ज्यादा आबादी वाली सभी बस्तियों को हर मौसम में उपयुक्त सड़कों से जोड़ते हुए नियोजित ग्रामीण सड़क नेटवर्क विकास पर जोर दिया गया है।
बुनकरों की घटती संख्या की कई वजहें हैं। गणना से पता चलता है कि बुनकर हर महीने बमुश्किल महज 3400 रुपये ही कमा पाते हैं। इसके मुकाबले दूसरे क्षेत्र के
कामगारों का अखिल भारतीय औसत 4500 रुपये है। अगर ये कारीगर अपना हुनर छोड़ देंगे तो यह कला पूरी तरह खत्म हो जाएगी। बुनकरों को भी समाज में उसी
तरह ऊंचा स्थान मिलना चाहिए जैसे किसी चित्रकार या कलाकार को मिलता है। हाथ से बुने उत्पाद एकदम अनोखे होते हैं। इन्हें धागों के अलावा धैर्य,
जज्बा, रुचि और हुनर के भी साथ बुना जाता है। लिहाजा, बुनकरों को उनके काम के अनुसार मेहनताना भी मिलना चाहिए और यह तभी मुमकिन है जब इस उद्योग को मजबूत बनाया जाएगा।
अपने पारंपरिक हस्तकरघा उत्पादों की विविधता और बहुलता के दम पर दुनिया में भारत का एक अलग स्थान है। दुनिया भर का 85 फीसदी हथकरघा उत्पादन अकेले भारत में होता है।
हथकरघा का काम करने वाले दूसरे देशों में श्रीलंका, नेपाल, बांग्लादेश, कंबोडिया और इंडोनेशिया है लेकिन यहां उत्पादों की रेंज काफी सीमित है। यहां मुख्य रूप से घरेलू उपभोग के लिए ही काम होता है।
इससे उलट, 2009-2010 में भारत ने 26 करोड़ डॉलर का निर्यात किया था। यह 2013-14 तक 40 फीसदी बढ़कर 37 करोड़ डॉलर तक पहुंच गया। इस ग्रोथ रेट से यह साफ है कि इस क्षेत्र में काफी संभावनाएं हैं।
सांस्कृतिक विभिन्नता और बुनकरों की बड़ी आबादी के बूते भारत हाथ से बने उत्पादों में दुनिया भर की मांग पूरी करने की क्षमता रखता है। इसके लिए जरूरी है
कि हथकरघा उद्योग तेजी से बदलते और विविधता वाले नए युग की मांग के साथ तालमेल बिठा सके। बुनाई के इस काम में हमारी पांरपरिक झलक के साथ आधुनिक डिजाइन की छटा होनी भी जरूरी है।
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