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फ़िल्म संगीत का बदलता संसार राजीव विजयकर
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किसी युग में सिनेमा कैसा हो - यह फ़ैसला समाज और सामाजिक मुद्दे करते हैं और सिनेमा यह तय करता है कि हम उसमें किस प्रकार का संगीत सुनें| कुछ भी हो, यह तय है कि फ़िल्मों में हम वह संगीत सुनते हैं, जिसका सरोकार समाज और उसके छटनाक्रम से होता है|
आज़ादी से पहले 1940 के दशक में फ़िलमकारों में उत्साह था और वे फ़ैसले लेने की क्षमता रखते थे| लेकिन वे '50 के दशक के मध्य तक कुछ निराश से हो गए| '60 के दशक में उनमें कुछ जीवंतता तब आई, जब सिनेमा में रंगीन फ़िलमों का समावेश हुआ| फ़िल्में हल्की-फुल्की हुई लेकिन उनमें समाज के प्रति विद्रोह और आक्रामकता पैठ गई| '70 और -80 के दशकों में अंतराष्ट्रीय घटनाक्रम फ़िल्मों पर असर डालने लगे और '90 के दशक में अर्थव्यवस्था विदेशियों के लिए खोल दी गई| सिनेमा भी इससे अछुता न रहा|
दूसरा मुद्दा यह है कि किसी भी वाणिज्यिक कला में मानक पक्ष होता है- सोचा-समझा तत्व| फ़िल्म किसी एक गाने या एक मुद्दे के चलते भारी कामयाबी हासिल कर सकती है और इनसे यह भी तय होने लगते हैं कि निकट भविष्य में किस प्रकार की फिल्में वनेंगी |
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