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भूजल की कृत्रिम भरपाई बी.एम. झा आर.सी. जैन |
पिछले कुछ दशकों के दौरान भारत में सिंचाई, पेयजल और औधोगिक प्रयोगों के लिए पानी की ज़रूरतें पूरी करने में भूजल पर निर्भरता बढ़ी है| सूखा प्रबंधन के एक प्रभावशाली साधन और कृषि में स्थिरता लानें में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका के चलते भारतीय अर्थव्यवस्था में भूजल विकास ने एक महत्वपूर्ण स्थान ग्रहण कर लिया है|देश के कुछ भागों में भूजल का दोहन एक नाज़ुक चरण में पहुंच गया है, जिसके परिणामस्वरूप इस संसाधन की कमी महसूस की जा रही है|भूजल संसाधनों के अत्यधिक विकास का नतीज़ा यह रहा है कि भूजल का स्तर गिरा है, पानी की आपूर्ति कम हुई है, तटीय क्षेत्रों में पानी खारा हो गया है और पंपों के जरिये इसे उठाने में अब ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है| भूजल की निरंतर गिरती गुणवत्ता ने कुछ क्षेत्रों में ताजे भूजल की उपलब्धता को प्रभावित किया है| इन सबका पर्यावरण पर अप्रत्यक्ष तौर पर काफ़ी प्रभाव पड़ा है और लोगों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति भी प्रभावित हुई है| यही कारण है कि जल संसाधनों के संवर्धन के लिए बहुत जल्दी क़दम उठाए जाने की ज़रूरत है, ताकि सुदीर्घ अवधि तक इस अमूल्य संसाधन की उपलब्धता सुनिश्चित की जा सके| इस दिशा में भूजल की भरपाई करने में कृत्रिम तरीकों की महत्वपूर्ण भूमिका है और ऐसा करके ही भूजल भंडारों के क्षरण और इसके कारण आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरण पर पड़ने वाले कुप्रभावों को रोका जा सकता है|
प्राचीन काल से ही भारत में जल संग्रहण की परंपरा रही है| पुराणों में भी इस बात के साक्ष्य मौजूद हैं| स्थानीय परंपराओं और पुरातात्विक अवशेषों से इस बात की पुष्टि होती है| प्रागैतिहासिक युग में भी जल संभरण की क़ाफी उन्नत व्यवस्थाओं के प्रमाण मिलते हैं| परंपरागत रूप से बनाए जाने वाले जल संभरण संचरनाओं का उद्देश्य वर्षा के बह जाने वाले पानी को इकट्ठा करना तथा इसे सिंचाई, पीने और अन्य घरेलु कामों में इस्तेमाल करना था| अगर पानी खुले में इकट्ठा किया जाता है तो इसके भाप बनकर उड़ जाने और प्रदूषित हो जाने का ख़तरा रहता है| कृत्रिम ढंग से भूजल की भरपाई करने की अवधारणा ज़मीन के नीचे मौजूद भूजल भंडार को संवर्धित करने और इसके क्षरण को रोकने पर आधारित है| |
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